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Rath Yatra Festival 2021 रथ यात्रा उत्सव 2021: रथ यात्रा उत्सव प्रतिवर्ष आषाढ़ माह की शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि से मनाया जाता है, इस वर्ष (वर्ष 2021) रथ यात्रा उत्सव 12 जुलाई, दिन सोमवार से प्रारंभ होगा। किन्तु कोरोना संक्रमण के कारण पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अनुरूप बिना श्रद्धालुओं के ही रथ यात्रा निकाली जायेगी।
भारत के प्रमुख पर्वों में से एक रथ यात्रा पूरे भारत वर्ष में बहुत ही उल्लास पूर्वक और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। रथ यात्रा का प्रमुख केन्द्र उडीसा का जगन्नाथ पुरी है, यहां पर रथ यात्रा का आयोजन वृहद रूप में भव्य आयोजन होता है। हिन्दुओं के चार धाम में से एक जगन्नाथ मंदिर पुरी भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है।
आषाढ़ माह की शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को प्रारंभ होने वाली यह रथ यात्रा बहुत ही प्रसिद्ध है। सुसज्जित रथों में मन्दिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण), बड भाई बलराम और बहिन सुभद्रा देवी को अलग-अलग विराजमान कर नगर में रथ यात्रा निकालते हैं। शुक्लपक्ष की द्वितीया को रथ यात्रा उत्सव में सम्मिलित होने के लिए देश-विदेश से भारी संख्या में भक्तजन आते हैं।
Why Celebrate Rath Yatra रथ यात्रा मनाने का कारण
माना जाता है कि माता सुभद्रा की द्वारिका भ्रमण करने की इच्छा को पूरा करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण और बलराम ने अलग-अलग रथ में बैठकर द्वारिका नगरी का भ्रमण करवाया था। माता सुभद्रा की इसी नगर भ्रमण की याद में रथयात्रा का आयोजन प्रतिवर्ष उडीसा के पुरी में बहुत ही धूम-धाम से किया जाता है।
रथ यात्रा के संबंध में माना जाता है कि इस रथ यात्रा में हिस्सा लेकर रथ खिचने वाले भक्तों को मोक्ष प्राप्त होता है।
रथ यात्रा उत्सव की उत्पत्ति के संबंध में बहुत सी पौराणिक और ऐतहासिक मान्यताएं तथा कथाएं मानी जाती हैं। उन्हीं कथाओं में से एक कहानी के अनुसार नीलांचल सागर (वर्तमान में उड़ीसा) के पास राजा इंद्रद्युम्न अपने परिवार सहित रहते थे।
राजा इंद्रद्युम्न को एक बार सागर में एक विशालकाय लकड़ी तैरती नजर आयी। राजा ने उस लकड़ी को समुद्र से निकलवाया और उस लकड़ी की सुंदरता देखकर इस लकडी से भगवान जगदीश की मूर्ति बनवाने का विचार किया। तत्समय ही वहां देवों के शिल्पी विश्वकर्मा एक बूढ़े बढ़ई के रुप प्रकट हो गये। जिनसे राजा ने भगवान जगदीश की मूर्ति बनाने का आग्रह किया।
तब विश्वकर्मा जी जो बूढ़े बढ़ई के रूप में प्रकट हुये थे ने राजा के सामने एक शर्त रखी कि वो जबतक जिस कमरे में भगवान जगदीश की मूर्ति बनायेंगे तब तक उस कमरे में कोई ना आये। राजा इंद्रद्युम्न ने उनकी ये शर्त मान ली। माना जाता है कि आज जहा पर श्री जगन्नाथ जी का मंदिर है, वही पर बूढ़े बढ़ई (विश्वकर्मा जी) मूर्ति निर्माण कार्य में लग गये।
राजा और उनके परिवार वालो को ये बिलकुल पता नहीं था कि बूढे बढई के रूप में स्वंय विश्वकर्मा जी हैं, बूढे बढई (विश्वकर्मा जी) के मूर्ति निर्माण कार्य प्रारंभ करने के पश्चात कई दिन व्यतीत हो जाने के पर महारानी के मन में विचार आया कि बढ़ई कई दिन से अपने कमरे में है, कहीं भूख के कारण उसकी मृत्यु तो नहीं हो गयी। अपने इसी विचार आरै शंका को महारानी ने ने राजा से भी बताया। महारानी के विचार जानने के पश्चात राजा ने कमरे का दरवाजा खुलवाया और पाया कि उस कमरे में लकडी की अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की मूर्तिया मौजूद थी, किन्तु कमरे में बढ़ई नही मिला। बढई के न मिलने और मूर्तियां अर्द्धनिर्मित मिलने की घटना से राजा और रानी काफी दुखी हुये। उसी समय अकस्मात वहां एक आकाशवाणी हुई कि ‘व्यर्थ दु:खी मत हो, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं मूर्तियों को द्रव्य आदि से पवित्र कर स्थापित करवा दो।’ तब से वही अर्धनिर्मित मूर्तियां जगन्नाथ पुरी मंदिर में स्थापित हैं और यहां सभी भक्त श्रद्धा पूर्वक पूजा-अर्चना करते हैं साथ ही यही मूर्तियां रथ यात्रा में शामिल किया जाता है।
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क्या हैं रथ यात्रा के रिवाज एवं परंपरा और कैसे मनाया जाता है यह पर्व
वर्तमान में रथ यात्रा को उत्सव के रूप में पूरे भारत में मनाया जाने लगा है, किन्तु इसकी उडीसा के जगन्नाथ पुरी से हुई है। रथ यात्रा का शुभारंभ पर पुराने राजाओं के वंशज पारंपरिक ढंग से भगवान जगन्नाथ के रथ के सामने झाडू लगाते हैं, झाडू के हत्थे सोने के होते हैं। इसके पश्चात मंत्रोच्चार के साथ रथ यात्रा प्रारंभ होती है। रथ यात्रा के आरंभ होने के साथ ही कई पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाये जाते हैं और सैकड़ो भक्त मोटे-मोटे रस्सों से रथ को खींचते है। रथ यात्रा में सबसे आगे बलराम जी का रथ होता है, इसके थोड़ी देर बाद सुभद्रा जी का रथ होता है और अंत में भगवान जगन्नाथ जी का रथ होता है।
रथ यात्रा पुरी स्थित गुंडिचा मन्दिर पहुंचकर पूर्ण होती है। रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा गुंडिचा मंदिर आते है, जहां पर उनकी मौसी गुंडिचा उन्हें पादोपीठा खिलाकर उनका स्वागत करती हैं। गुंडिचा मन्दिर को भगवान की मौसी का घर माना जाता है। माना जाता है कि रथयात्रा के दौरान भगवान यहाँ 9 दिन तक ठहरते हैं। गुंडिचा मन्दिर भगवान जगन्नाथ मन्दिर से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर है।
आषाढ़ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को भगवान जगन्नाथ जी की जगन्नाथ मंदिर हेतु वापस रथ यात्रा शुरु होती है। ये वापस रथ यात्रा को बहुड़ा यात्रा कहते हैं।
रथ यात्रा के वापस जगन्नाथ मंदिर पहुंचने पर एक दिन तक मूर्तियों को भक्तों के दर्शन के लिए रथ में ही रखा जाता है और अगले दिन मंत्रोच्चारण के साथ मूर्तियों को पुनः मंदिर में स्थापित किया जाता है और इसी के साथ रथ यात्रा का यह कार्यक्रम पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है।
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Importance of Rath Yatra रथ यात्रा का महत्व
रथ यात्रा उत्सव भारत के प्रमुख उत्सवों में से एक है, रथ यात्रा दस दिवसीय है। उत्सवों के साथ ही रथ यात्रा का भारत के इतिहास में भी काफी महत्वपूर्ण स्थान है। पुराणों और धार्मिक ग्रंथों में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा को सौ यज्ञों के बराबर माना गया है। और इसी वजह से रथयात्रा उत्सव में भाग लेने के लिए देश भर से भारी संख्या में भक्त भगवान जगन्नाथ मंदिर पुरी में उपस्थित होते है। कितना भी कष्ट हो सभी श्रदधालू भगवान जगन्नथ के रथ की रस्सी खींचने के लिए भरपूर कोशिश करते हैं और भगवान से अपने समस्त कष्ट हरने की प्रर्थना करते हैं।
History of Rath Yatra क्या है रथ यात्रा का इतिहास
आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को रथ यात्रा उत्सव संपूर्ण भारतवर्ष में बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसकी उत्पत्ति की सटीक जानकारी तो उपलब्ध नहीं है किन्तु रथ यात्रा उत्सव को भारत के सबसे प्राचीनतम पर्वों में से एक माना जाता है। उडीसा के जगन्नाथ पुरी में रथ यात्रा के इस उत्सव का इतिहास काफी पुराना है, रथ यात्रा की शुरुआत सन् 1150 इस्वी में गंगा राजवंश द्वारा की गई थी। रथ यात्रा उत्सव भारत का पहला उत्सव है जिसे भारत के साथ-साथ विदेशों में भी जाना गया। वेनिस निवासी इतालवी यात्री मार्को पोलो के यात्रा वृत्तांतों में भी रथ यात्रा का वर्णन मिलता है।
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